मैं क्यूँ चाहूँ ज़िंदगी से कुछ ?
मैं क्यूँ चाहूँ मेरे अपनों से कुछ ?
मैं क्यूँ चाहूँ अपने से कुछ ?
इस चाहत ने , क्या दिया है , मुझको कुछ ?
यह मन लगता है पागल मुझको कुछ ?
न पाए तो होता है परेशाँ कुछ-कुछ ?
पाए तो भी होता है परेशाँ फिर कुछ ।
उफ़ ! न जाने है ये चाहत क्यों फिर कुछ !
चलने दे जीवन को थोड़ा यूँही कुछ ।
मन बन जा तू भी बनजारा कुछ , लेने दे खुली हवा में साँस अपनों को कुछ ।
होने दे अपने को आज़ाद कुछ ।
मन तो बच्चा है जी
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