हज़ारों ख्वाहिशें ऐसी कि हर ख्वाहिश पे दम निकले ,
कहा था यूँ किसी शाईर ने , बहुत निकले मेरे अरमां लेकिन फिर भी कम निकले ।
मेरे मौला वो शाईर भी क्या शाईर था ,
हर एक के ज़हन पर ग़ालिब ही वो शाईर था ।
हर ख्वाहिश पे दम निकलता है फिर भी ख्वाहिशें अधूरी हैं ,
अरमां भी निकलते हैं फिर भी अधूरे ही निकलते हैं ।
ये टुकड़ा आसमां का क्यूँ , अधूरा सा ही दिखता है ,
ये सारा आसमां फिर क्यूँ नही मेरी मुट्ठी में भरता है ।
ये सारे चाँद – तारे क्यूँ नही नज़रों में समाते हैं ।
ऐ , शाईर तू बता कैसे जहाँ का हाले-दिल सुनाता है ?
क्यूँकर तेरी स्याही , जहाँ का दर्दे-दिल बताती है ?
अब शाईर भी करे तो क्या करे , हैं हमारी ख्वाहिशें इतनी ,
वो तो ग़म को पीता था या फिर ख्वाहिश थी बस स्याही की ।
Waah: वो तो ग़म को पीता था या फिर ख्वाहिश थी बस स्याही की ।
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