माया हर रोज़ की तरह सुबह छ: बजे उठ कर बाहर बालकनी में आकर खड़ी हो गई थी । उसकी बालकनी के ठीक सामने ही एक घना गुलमोहर का पेड़ था । उस के हरे , महीन पत्तों में लाल फूलों के गुच्छों पर जब सूरज की पहली किरणें पड़ती तो वो सुनहरे रंग में नहाए से लगते । माया कुछ देर उन्हें यूँही निहारती रही और मन ताज़ा करती रही । सुबह की चाय वो उन्हीं के साथ पीती थी । जैसे वो फूल उसकी इंतज़ार कर रहे हों । उन पलों में वो भूल जाती थी कि वो अकेली है , बहुत अकेली । पाँच साल बीत गए आलोक को गए , कभी – कभी उसे लगता था कि यादें जैसे धुंधला रही थीं । उसके कमरे में लगी उनकी शादी की तसवीर देख कर वो यादों के ज़हन पर ज़ोर डालती थी । जान-पहचान से ये रिश्ता आया और शादी तय हो गई थी , न उसकी राय ली गई , न उसकी मर्ज़ी । लड़का अच्छा कमाता है , लड़की की कॉलेज में नौकरी लगी है यानि पढ़ी-लिखी है , बस इससे आगे क्या चाहिए भला , परफ़ैक्ट मैच था । बड़ी अजीब बात है कि जिस परफ़ैक्ट मैच के साथ उसने दस साल बिताए उसकी यादें इतनी जल्दी धुंधली पड़ रही थीं । उन दस सालों में शायद ही कोई दिन होगा जब आलोक ने उसके साथ बैठ कर इस बालकनी में चाय पी होगी । उसे तो बिस्तर में ही बैड टी चाहिए थी और माया को बाहर खुली हवा में । इसी बात पर वो न जाने कितना नाराज़ हो जाता था , उसका गुस्सा तो नाक पर ही रहता था । बस यूँही मन की लुका-छिपी सा ये रिश्ता सरकता रहा । आलोक अपने काम में इतना डूबा था कि घर आने की सुध ही न रहती । उसका टारगेट आगे बढ़ता गया और ज़िंदगी ने सब कुछ पीछे छोड़ दिया । माया उसके टार्गेट में कहीं भी फ़िट नही बैठती थी । एक दिन आलोक को अचानक ऑफ़िस में ही अटैक हुआ और सारे टार्गेट अपने साथ ले गया । माया अकेली की अकेली रह गई थी । माँ और भाई ने बहुत कहा था कि इस फ़्लैट को बेच कर जयपुर आ जाए , यहाँ दिल्ली में अब कौन था उसका….? लेकिन कॉलेज की नौकरी वो कैसे छोड़ सकती थी ? वो तो पहले भी अपने साथ ही थी…बस अब नही था तो वो था इंतज़ार । आलोक से कितनी बहस होती थी इस बात पर कि कॉलेज की नौकरी छोड़ दे , उसने समझाया था आलोक को कि दिनभर घर में वो क्या करेगी । बड़ी मुश्किल से माना था वो , उसे अपनी बीवी घर में अच्छी लगती थी , घर और पति की देखभाल करती हुई । माया को तो इंगलिश लिटरेचर पढ़ते-पढ़ाते स्टेज से प्यार हो गया था । वो कॉलेज में बहुत प्लेज़ करती थी और अब बच्चों से करवाती है । आलोक से वो कभी इस बारे में बात नही कर पाई अगर करती भी थी तो वो हूँ….हाँ करता ऊब कर कहता ,
यार….ये नाटक की बातें तुम कॉलेज में छोड़ कर आया करो , मैं बहुत थक गया हूँ ।
वो सो जाता और माया अपनी बालकनी में आकर बैठ जाती । देर तक तारों और चाँद को ताका करती । कॉलेज से आकर फिर वही बालकनी और नीचे बना प्लेग्राउंड जिसमें हर शाम बच्चे खेलते थे , वे उसके साथी थे । वो सोचती थी कि अगर उसका भी बच्चा होता तो कुछ इतना ही बड़ा होता । लेकिन आलोक के टार्गेट में बच्चे की कोई जगह नही थी । उन्हीं बच्चों में वो सपने बुनती रहती थी , कितनी ही बार बच्चों की बॉल उस तक आती और वो लपक कर पकड़ लेती , फिर बच्चे उसकी पहली मंज़िल की बालकनी की ओर देख कर कहते ,
आंटी…मेरी ओर फ़ेंकिए ।
दूसरा कहता ,
नहीं आंटी मेरी टर्न है मेरी ओर फ़ेंकिए ।
और वो मुस्कुराती हुई उन्हें डॉज देती किसी तीसरे की ओर फ़ेंक देती । इस खेल में उसे बड़ा मज़ा आता था । उन पलों में वो भी बच्चा बन जाती थी ।
कोई बच्चा किसी दिन न आता तो अगले दिन ऊपर से पूछती ,
अरे…बंटी तू कल क्यूँ नही आया था खेलने…?
और बंटी भी बड़े अपनेपन से बताता ,
आंटी कल मैथ्स पढ़ना था ना , आज टैस्ट था ।
कैसा हुआ टैस्ट…..?
वो पूछती और जवाब मिलता ,
अरे आंटी……..हो गया बस।
इसी तरह इस बालकनी का उससे बड़ा गहरा रिश्ता बन गया था , ये उसकी बड़ी अपनी सी थी , सखी – सहेली जैसी । उसके साथ वाला फ़्लैट काफ़ी समय से खाली था , उसकी बालकनी उस खाली फ़्लैट की बालकनी के बहुत पास थी । उस बालकनी का खालीपन उसे बड़ा अखरता था । सोचती थी कि कोई आ जाए तो थोड़ी रौनक हो जाएगी । आज उसे वहाँ कुछ हलचल सी दिखाई दी थी , मन में सोच रही थी , पता नही कौन आया होगा , शायद कोई यंग कपल होगा , या कोई बुज़ुर्ग कपल , मन जानने को उत्सुक था । जब कोई बाहर नही दिखा तो उसे बोरियत होने लगी और वो भीतर आ गई । पता नही आजकल लोग घर-घुसेड़ू क्यों हो गए हैं ? घर से बाहर ही नही निकलते ! उसने अपने लंबे , काले , घुंघराले बालों को लापरवाही से ऊपर बाँधा और सुबह के काम में लग गई । कॉलेज को देर हो रही थी , जल्दी – जल्दी ब्रैड – टोस्ट खाए और भागी लिफ़्ट की ओर । आज खाना भी नही पैक किया , दिल नही था कुछ बनाने का , कॉलेज की कैंटीन ज़िंदाबाद । लिफ़्ट के लिए इंतज़ार कर रही थी कि उस साथ वाले फ़्लैट से भागता-दौड़ता सा एक लड़का निकला , बिखरे-गीले बाल जैसे अभी नहा कर बाथरूम से बाहर आया हो । लिफ़्ट आते ही दौड़ कर उसमें घुस गया , साबुन की महक लिफ़्ट में फैल गई थी । उसने माया की ओर देख कर एक मुस्कान फैंकी और इधर-उधर देखने लगा । माया ने उसकी मुस्कान का कोई जवाब नही दिया और बाहर आकर जल्दी से गाड़ी स्टार्ट की तो देखा वही लड़का सामने खड़ा था । उसने हाथ देकर गाड़ी रोकने का इशारा किया , माया लेट हो रही थी उसके चेहरे पर झुंझलाहट आ गई । पर क्या करती नया पड़ौसी था , पता नही क्या सोचेगा , उसने गाड़ी रोक दी । इससे पहले कि वो कुछ कहती वही बोल पड़ा ,
मैम आप कहाँ जा रही हैं ? प्लीज़…प्लीज़…प्लीज़ मुझे भारतीय विद्या भवन तक छोड़ सकतीं हैं क्या ? अगर आप उधर जा रही हैं तो ? मैं क्लास के लिए लेट हो गया हूँ ।
उसके चेहरे पर मायूसी और मासूमियत के साथ निवेदन था , वो मुस्कुराकर बोली ,
आईए मैं छोड़ दूँगी ।
गाड़ी में बैठ कर उसने गहरी , लंबी चैन की साँस ली और माया की ओर देखकर मुस्कुरा दिया , माया भी मुस्कुरा दी । कुछ देर दोनों के बीच चुप्पी फैली रही जो माहौल को बेवजह भारी बना रही थी । शायद उसे भी यही लगा होगा इसलिए सवाल किया ,
सॉरी मैंने तो ये पूछा ही नही कि आप किधर जा रही हैं , बस कूद कर बैठ गया ।
कुछ हँसते हुए वो बोला तो माया भी उसकी बात पर मुस्कुरा दी ,
मैं युनिवर्सिटी की ओर जा रही हूँ , छोड़ दूँगी आपको आपकी मंज़िल तक ।
ओह , थैंक्यू सो मच । मैं लेट न हो रहा होता तो आपको ये तकलीफ़ न देता । मैं वहाँ कोर्स कर रहा हूँ , आर्ट और आर्कियोलॉजी में । मेरा नाम अरूप है ।
उसने ख़ुद ही अपना परिचय देते हुए औपचारिकता निभाई तो माया ने भी गंभीर आवाज़ में औपचारिक हो कर कहा ,
मुझे माया कहते हैं….मिसेज़ माया त्रिवेदी । मैं कॉलेज में इंगलिश लिटरेचर पढ़ाती हूँ ।
अरूप ओह कहता हुआ हैरत से उसे देखता रहा जैसे पढ़ाने वाले उसे कुछ और ही तरह के लगते हों ।
इस बीच अरूप की मंज़िल आ गई थी वो माया को धन्यवाद की मुस्कान देता हुआ भाग गया । माया ने गहरी साँस लेते हुए सिर झटका , उसे ये हड़बड़ाहट और आख़िरी वक्त पर काम करने वालों से ऐलर्जी थी । वो पाँच मिनट पहले पहुँचना पसंद करती थी , देर करना उसके स्वभाव में नही था । उसका हर काम समय पर होता था , कोई उसके साथ अपनी घड़ी मिला सकता था । एक आलोक ही था जिसे वो अपने समय में व्यवस्थित नही कर पाई थी । अरूप जैसे लोगों पर उसे गुस्सा आता था , बेढंगे , बिखरे से । नया पड़ौसी आया भी तो ऐसा , क्या फ़ायदा ! कॉलेज में आते ही वो सब भूल जाती थी अरूप को भी भूल गई , वैसे भी उसमें याद करने जैसा था भी क्या ?
शाम को कॉलेज से थक कर आई माया ने चाय बनाकर अपनी बालकनी में झाँका , गुलमोहर के फूल उसे लहरा-लहरा कर बुला रहे थे । उन्हें देख उसके चेहरे पर बड़ी सी मुस्कान आ गई जैसे किसी परिचित को देख कर आती है बिलकुल वैसी ही । अपने बालों को ढीला छोड़ कर चाय के साथ दिनभर की थकान उतारने लगी तभी साथ की बाल्कनी से आवाज़ आई ,
हाय……!
उसने घूम कर देखा तो अरूप बड़ी सी मुस्कान लिए हाथ हिला रहा था । उसने भी जवाब में हाथ हिला दिया । औपचारिकता में उसने पूछ भी लिया ,
चाय….पीजिए ।
और वो जनाब अभी आया…. कहते हुए उसके घर धमक पड़े । इतनी अनौपचारिकता उसे बुरी नही लगी थी क्योंकि अकेले चाय पीने में मज़ा कहाँ आता था । उसने एक कप चाय और बनाई और दोनों बैठ गए । चीनी कम-ज़्यादा का हिसाब पूछ कर उसने जिज्ञासा से पूछा ,
घर में कौन-कौन है आपके ? कोई दिखाई नही दिया ?
अरूप हँसते हुए बोला ,
कोई होगा तो दिखाई देगा ना….अ….मिसेज़…..नो…..माया । ये मिसेज़ – विसेज़ कह कर बुलाना कितना अजीब लगता है ना ?
माया को भी उसकी बात पर हँसी आ गई……नो प्रॉबलम…यू कैन कॉल मी माया । घर में कौन-कौन हैं और कहाँ हैं ?
अरूप खड़ा हो कर पास रखे बुकशैल्फ़ पर नज़र डालते हुए बोला ,
मैं अकेला ही हूँ फ़्लैट में , मम्मी-पापा कानपुर में हैं । मैं यहीं जॉब ढूँढ रहा हूँ और कोर्स भी कर रहा हूँ ।
अरूप शैल्फ़ से एक किताब निकाल उस पर नज़र डालता हुआ माया की ओर मुड़ा ,
हैरीटेज कन्ज़रवेशन में पढ़ाई की है मैंने , हिस्ट्री का शौक है । देख रहा हूँ कि आप भी हिस्ट्री में दिलचस्पी रखती हैं , हिस्ट्री की काफ़ी किताबें हैं आपके पास । आपके पति को भी शौक है किताबों का ?
इस सवाल पर माया किताबों की ओर देखते हुए बोली ,
हाँ….मुझे ये ऐतिहासिक इमारतें बोलती हुई सी लगती हैं । लगता है कि इनमें कितने किस्से , कहाँनियाँ जब्त हैं जो ये सुनाना चाहती हैं । मेरे पति को किताबों का नही काम का शौक था , वो अब नही रहे ।
कहीं खोई सी माया ऐसे बोल रही थी जैसे उन इमारतों का दिल जानती हो , आलोक को तो ये पुरानी इमारतें कब्रिस्तान लगती थीं । अरूप उसे एकटक देखता हुआ बोला ,
ओह…..आई एम सौरी ।
उसके देखने से वो कुछ झेंप गई और उन नज़रों से बचने के लिए किचन से कुछ लेने के बहाने उठ गई । उसे एहसास हो रहा था कि अब भी अरूप की आँखें उसका पीछा कर रही थीं । अरूप ने कुछ ऊँचे स्वर में कहा ,
चलो…, मुझे इन खंडहरों में घूमने के लिए भूतों के साथ कोई और भी मिल गया ।
उसकी बात पर माया हँस पड़ी , वो हैरान थी कि वो कितनी जल्दी उसके साथ सहज हो गया था ,
क्यूँ इससे पहले कोई नही मिला तुम्हारा और भूतों का साथ देने वाला ?
मिला नही , मिली थी लेकिन वो मुझे ज़्यादा बर्दाश्त नही कर पाई या फिर भूतों का साथ उसे अच्छा नही लगा । चलिए संडे को चलते हैं ग़ालिब की हवेली , वहीं कुछ खा लेंगे । अ….अगर आप कहें तो ।
कहते हुए वो कुछ हकला सा गया फिर ज़ोर का ठहाका लगाया , माया उस घर में बरसों बाद किसी हँसी की गूँज सुन रही थी । उसने कुछ सोचते हुए कहा ,
देखती हूँ , कुछ काम नही हुआ तो चल सकते हैं ।
अरूप चला गया और माया सोचती रही कि कितने दिनों बाद इस घर की ख़ामोश दिवारों में बातें और हँसी की आवाज़ आई है । संडे आया तो अरुप उसे लेने सुबह-सुबह घर के दरवाज़े पर खड़ा था । बड़ी हिचकिचाहट के बाद , उसके साथ जाने को तैयार हुई । वो दोनों ग़ालिब की हवेली गए , उस दिन अरूप ने उसे ग़ालिब के शेर और ग़ज़लें सुना हैरान कर दिया था । चाँदनी चौंक में गली से पूरी , आलू की सब्ज़ी और चाट खा कर माया उस दिन जैसे बरसों की भूख मिटा रही थी । अब अरूप हर संडे कहीं न कहीं उसे घसीट ले जाता , वो मना करती तो एक न सुनता , बच्चों की तरह ज़िद करता और वो मना नही कर पाती । अकेली होती तो अरूप का चेहरा , उसकी बातें उसकी आँखों के सामने आता रहता और वो हटाती रहती । शायद लंबे समय के बाद कोई उससे इतनी बेतकल्लुफ़ी से बात कर रहा था , उसकी पसंद-नापसंद की परवाह कर रहा था । अब हर रोज़ अरूप , माया के साथ जाने लगा , माया को भी रेडियो के अलावा कोई साथी मिल गया था । वो बहुत बातूनी था , रास्ते में न जाने कहाँ-कहाँ के किस्से सुनाता रहता और वो मुस्कुराती उसकी बातें सुनती रहती । इतने कम समय में वो माया के साथ काफ़ी घुल-मिल गया था । माया के जीवन का खालीपन भरने लगा था , वो कभी अचानक रात को आ जाता ,
क्या बनाया है आपने….? मुझे भूख लगी है , आपने सिर्फ़ सूप बनाया है !
और वो उसके लिए कुछ ना कुछ पकाती और वो खाते हुए पूरा मज़ा लेता ,
आ…हा…हा…हा , क्या बनातीं हैं आप ? आपके हज़बैंड कितने लकी थे !
वो जैसे कहीं खो जाती , आलोक ने कभी ऐसा नही कहा , वो तो अक्सर ऑफ़िस से खा कर ही आता था । इस बीच एक बार अरूप कुछ दिन के लिए कानपुर चला गया , पता नहीं क्यूँ उसका दिल ही नही लग रहा था ! कई बार फ़ोन को देखती कि कहीं उसकी कॉल तो नही है , कभी फ़ोन उठाती कि उससे बात कर लूँ लेकिन नही करती । क्यूँ वो इतना सोच रही है उसके बारे में ? वो बहुत छोटा है उससे उम्र में और फ़ोन रख देती । एक दिन अरूप सुबह-सुबह धमक पड़ा ,
रात की ट्रेन से आया हूँ….बहुत भूख लगी है , कुछ खिलाएँगी नही ?
कितनी खुश थी माया उस दिन , उसके आने से जैसे खुशी लौट आई थी । अब वो अपने घर कम और माया के पास ज़्यादा समय बिताने लगा था । किताब पढ़ते – पढ़ते वहीं सोफ़े पर बच्चों की तरह सो जाता और माया उसे देख मुस्कुराती रहती । छुट्टी वाले दिन बच्चों की तरह ज़िद पकड़ लेता कि चलो कहीं बाहर और ले जाता किसी न किसी नई जगह पर । एक दिन वो उसे महरौली ले गया , वहाँ की उन पुरानी इमारतों को देख कर लग ही नही रहा था कि वे दिल्ली में हैं । दूर तक फैले अलग-अलग मकबरे और खूबसूरत बावलियाँ देख कर वो दिनभर उनमें घूमते रहे थे । उस दिन एक बावली में नीचे जाकर वो बैठी तो पीछे से आकर अरूप ने उसका हाथ पकड़ लिया था । उसे कुछ अटपटा सा लगा था , अजीब सा , जो पहले कभी नही लगा था । उसने हाथ छुड़ाया नही था , वो भी बहुत देर तक उसका हाथ अपने हाथ में थामें बैठा रहा था । माया का दिल चाह रहा था कि वो अपनी वर्षों की थकान मिटा दे , उसके कंधे पर सिर रख कर , लेकिन नही कर पाई थी वो ऐसा । उसकी भावनाएँ उसे छल रही थीं , ये ठीक नही है , कुछ भी ठीक नही है । पत्ते पर ठहरी ओस टपकने को थी उसने रोक लिया था । वो ख़ामोश चलती रही थी । उस दिन अरूप भी कुछ ख़ामोश था , हर वक्त बोलने वाला , बकबक करने वाला अरूप खोया सा चल रहा था । उन्होंने वहीं किसी खोंमचे पर चाय पी थी , कितनी चाह थी माया को इस चाय की । कॉलेज में थी तो कई बार पी लेती थी लेकिन शादी के बाद कभी नही क्योंकि आलोक को ये सड़क पर खाना-पीना बिल्कुल अच्छा नही लगता था ,
खाना ही है तो किसी अच्छी जगह खाओ , ये क्या सड़क पर खाने लगो ।
उसने कितना डाँटा था उसे एक बार जब उसने ड्राइव पर जाते हुए ढाबे में चाय पीने की इच्छा ज़ाहिर की थी । अरूप बिल्कुल उस जैसा है , उसकी पसंद कितनी मिलती है उससे । शायद अरूप ने बहुत देर करदी उसकी ज़िंदगी में आने में । उसके दिल ने खाली जगह बना ली थी अब उसमें वो जगह किसी के लिए नही थी । उसे वो खाली जगह भाने लगी थी , उसमें कोई आए तो उसे घबराहट होने लगती थी । अरूप के आने से वही घबराहट बढ़ गई थी , उस खाली जगह में खलबली सी मच गई थी । उसे इस खलबली को हटाना होगा , कोई वहाँ नही आ सकता , वो उसकी अपनी जगह थी । आज संडे था , उसने बालकनी का दरवाज़ा बंद ही रखा था , उसने गुलमोहर के लटकते फूलों के झालर को खिड़की से देख कर खिड़की भी बंद कर दी थी । चाय भी उसने आज अपने बिस्तर पर बैठ कर पी थी बिल्कुल आलोक की तरह । अगर अरूप आएगा तो उससे कह देगी कि आज उसकी तबीयत ठीक नही , उसे कहीं नही जाना । इतने में कॉल बैल बज उठी , बड़े अनमने मन से वो उठी थी । उसने कामवाली से कह दिया था कि उसे संडे को देर से काम चाहिए , ये फिर भी आ गई । उसे उस पर गुस्सा आ रहा था । दरवाज़ा खोला तो सामने दोनों हाथों को देहरी पर फैलाए मुस्कुराता हुआ अरूप खड़ा था । उसे देखते ही माया का दिल ज़ोर से धड़क उठा था लेकिन वो मुस्कुराई नही कुछ रूखी सी निगाह उस पर डाल कर अपने दिल को काबू में करती रही । वो मस्ती में अंदर आ गया , सामने खड़ा होकर उसकी आँखों में आँखें डालता हुआ बोला ,
क्या हुआ….आज चाय नही पी….बालकनी बेचारी उदास है , ये फूल भी उदास हैं । ये मुरझाया सा चेहरा क्यूँ ?
कहते हुए उसने माया की ठोडी प्यार से उठाई तो माया का दिल गले तक आ गया , वो अरूप से दूर भागना चाहती थी लेकिन वो था कि उसे अपनी ओर खींच रहा था । इस प्यार से उसकी आँखें भारी होने लगीं थीं और न जाने कब मुंद गईं थीं , बाल खुल कर बिखर गए थे । अपनी आँखों पर उसे कोमल स्पर्श और गर्म साँसें महसूस हुईं तो उसने घबरा कर आँखें खोल दीं और झटक कर अलग हो गई ,
ये ठीक नही है….। तुम चले जाओ…प्लीज़ । मुझे अकेला छोड़ दो ।
अरूप उसके और पास आ गया था , चेहरे से उसके बालों को हटाते हुए उसने माया का कोमल , बर्फ़ सा हाथ अपने हाथों में ले लिया ,
क्या ठीक नही है और क्यूँ ठीक नही है ? क्योंकि तुम मुझसे बड़ी हो ?
हाँ…अरूप , ये हमारा रिश्ता बस दोस्ती तक ही ठीक है । समाज , तुम्हारे घरवाले , मेरे घरवाले कोई इसे नही मानेगा । सब ग़लत हो रहा है ।
कहते हुए माया ने अपना हाथ छुड़ा लिया और पीछे हट गई । अरूप ने फिर पास आकर , बहुत पास आकर उसकी आँखों में देखा ,
क्या तुम ये दिल से कह रही हो ? क्या मेरे चले जाने से तुम्हें कोई फ़र्क नही पड़ेगा ? क्या मेरी भावनाएँ एक तरफ़ा हैं ?
माया ने आँखें मूँदे , गहरी साँस लेते हुए कहा ,
क्या फ़र्क पड़ता है इससे कि मैं क्या सोचती हूँ या क्या चाहती हूँ । जाओ चले जाओ यहाँ से ।
जब उसने आँखें खोलीं तो अरूप वहाँ नही था । वो वहीं सोफ़े पर घंटों बैठी अपनी भावनाओं और दिल को थामें डूबती रही । उसने कुछ फ़ैसला कर लिया था , वो अरूप का सामना नही कर सकती थी , उसका मन नही मानेगा वो जानती थी ।
सुबह जब अरूप बाहर निकला तो माया के घर में ताला लगा था । उसने उदास नज़रों से घर को देखा और बाहर आकर ऑटो पकड़ लिया । सीधा माया के कॉलेज पहुँच गया , वहाँ पता चला कि वो नही आईं और छुट्टी की मेल भेजी है । अरूप सिर झुकाए विद्या भवन आ गया लेकिन आज उसका दिल नही लग रहा था । कहाँ गई होगी वो….? शायद शाम तक घर वापस आ जाए ये सोच कर वो भी घर आ गया और बार-बार उसके घर के दरवाज़े की आहट लेता रहा । अगले दिन सुबह उठ कर उसने बालकनी में झाँका लेकिन सब दरवाज़े बंद थे । वो उसे बिन बताए कहीं चली गई थी , वो ऐसा कैसे कर सकती थी उसने ऐसा क्यों किया ? वो उसकी खाली बाल्कनी में लटकते गुलमोहर के फूलों को देखता रहा जो उसे ढूँढ रहे थे उसी की तरह ।
माया ने अपने को जैसे सब से काट लिया था वो अपने जज़्बातों को भी काटती जा रही थी । वो अरूप से दूर जाना चाहती थी , जहाँ उसकी याद न हो । पर्वतों से बहती हवा , साथ ही झाग उछालती पहाड़ों से अठखेलियाँ करती गंगा , वातावरण में गूँजते वेदों के मंत्रोच्चारण , ऋषिकेश की सुबह को काल्पनिक लोक सा बना रही थी । ऐसे में आश्रम से निकल माया अपने ही विचारों में डूबी , गंगा के किनारे एक पत्थर पर बैठ गई । अरूप ने उसे सपनों की दुनिया दिखाई थी , प्यार की दुनिया , जो सच नही हो सकती थी । वो बार बार अपनी सूती , हल्के नीले रंग की साड़ी को तन से लपेट रही थी ,ठंडे पानी में झुरझुरी सी उठ रही थी । आसमानी रंग की साड़ी में माया गंगा की धार सी ही लग रही थी जो उसी में समा जाना चाहती थी , तभी एक तेज़ लहर ने उसे सिर से पाँव तक भीगो दिया , पर वो अविचल बैठी भीगती रही । यूँ भीगते हुए उसे लग रहा था जैसे गंगा उसके भीतर बैठे मोह , लोभ सब धो देगी । अब तक वो इस मोहजाल को ही तो लपेटती रही थी , इस कदर लपेट लिया कि मकड़ी के जाले की तरह वह उस में उलझ कर रह गई , वो इस मोहजाल को तोड़ ही नही पाई , अब भी कहाँ तोड़ पा रही थी , वो तो सिर्फ़ उन यादों से भाग रही थी । कितनी बार चाहा कि सब जंज़ीरें तोड़ दे लेकिन समाज , परिवार और मर्यादा उसके पैरों की बेड़ियाँ बन गई थीं । गंगा किनारे एक शिला पर बैठी माया अपने मन को टटोल रही थी , कौन सा मन ? उसे तो मन याद ही नही रहा , याद भी कैसे रहता क्योंकि उसने इतने वर्षों में अपने मन को कहीं गहराईयों में दफ़्न कर दिया था । अरूप उसकी ज़िंदगी में आकर सैलाब के पानी सा सब ऊपर ले आया था लेकिन उसने छोड़ दिया सब कुछ क्योंकि सैलाब का पानी अपने साथ बहुत कुछ लेकर आता है और साथ ले जाता है । वो निकल गई , नहीं बह पाई थी साथ । फिर वो खुद कहाँ जानती थी कि वो कहाँ जा कर रुकेगी । लेकिन अरूप अब भी उसके दिलो – दिमाग़ पर क्यों छाया था ? क्या कहीं खंडहरों से प्यार करने वाली माया के मन की ढहती दीवारों से कोई अंकुर तो नही फूट पड़ा था ? वो उसकी परवाह करता था लेकिन ये ठीक नही था , वो…वो उसे चाहने लगा था । वो हर पल उसे खुशी देता था जो पहले उसने कभी नही पाई थी , कहीं वो उसकी दिल की धड़कनें तो नहीं समझने लगा था ? उसने अपना पल्लू और कस लिया था , वो उसके बारे में क्यूँ सोच रही है ? वो कंधे झटक कर खड़ी हो गई , धुंधलका होने लगा तो गीले बदन उठ कर आश्रम की ओर चल दी जैसे इस काया को घसीट रही थी जो सूने , विरान खंडहरों सी थी । मन अब भी उसका नही था उसे डर था कि कहीं कोई अरमान आँखें न खोल दे । उसने दिल की कस के गिरह बाँध ली थी , नही सुनना चाहती थी उसकी कोई भी बात । आश्रम पहुँच कर कपड़े बदले और ध्यान में बैठ गई , मन भटकता रहा , कभी उसकी साँसों की गरमाहट तो कभी वो कोमल भावनाएँ तो कभी उसकी वो निश्छल हँसी । वो बिस्तर से चटाई पर लेट गई , अपने मन और तन को कष्ट देना चाहती थी ताकि उन कोमल भावनाओं को उस फ़र्श की सख़्ती से मिटा सके ।
दिन-रात आश्रम के काम में अपने आप को झोंक देती , घंटों ध्यान में बैठी रहती , अपने को थका देती । मन को पक्का करती कि अब वो कभी वापस नही जाएगी , उसने अपना फ़्लैट बेचने के लिए भाई को कह दिया , कॉलेज में अपना रैज़िंगनेशन भेज दिया । माँ को बता दिया कि अब वो कभी वापस नही आएगी । माँ ने इसे अपनी जवान , विधवा बेटी के पति के प्रति समर्पण समझा और उसे स्वीकार लिया । माया ने अपनी गिरह नही खोली । महीनों बीत गए , वो धीरे-धीरे अपने को भूलने लगी थी , अपने अरमानों पर समय की रेत डालती रही । कभी – कभी दिल उससे पूछ लेता कि अरूप का हाल नही जानेगी ? वो किस हाल में है , उसे किस तरह छोड़ आई थी जानना नही चाहेगी ? वो भी शायद कभी उसके बारे में सोचता होगा कि नही ? वो ऐसे विचारों को धकेल देती , उसके न सोचने और न जानने में ही उसकी और अरूप की भलाई थी । वो कठोर हो घंटों गंगा की लहरों में ख़ामोश पड़ी रहती मानों उसके साथ ही सारी भावनाएँ बहा देना चाहती हो ।
एक दिन जब वो संध्या की आरती के समय वापस लौट रही थी , आश्रम के चारों ओर अंधकार और शांति फैली थी , सन्नाटा गूँज रहा था । आश्रम के दरवाज़े पर उसे एक धुंधती सी आकृति खड़ी दिखाई दी । वो धीमे कदम रखती आगे बढ़ी तो उसका दिल पलभर को रूक गया , धड़कनें थमने लगीं । सामने अरूप उदास आँखों से उसे देख रहा था । उसका दिल किया कि जाकर उससे लिपट जाए और सारे अरमान धो डाले , लेकिन वो बुत बनी , भावनाहीन सी खड़ी रही , दिल में एक दर्द सा उठा , उसने अपने दिल को कस कर दबा लिया । उसका गीला बदन थरथरा रहा था , दिल की गिरह ढीली पड़ने लगी थी । अरूप ने धीमें कदमों से आगे बढ़कर अपनी जैकेट उसे उढ़ा दी और उसे कंधे से पकड़ कर एक ओर ले गया । संध्या आरती शुरू हो रही थी , शंख और घंटियों की आवाज़ तेज़ होती जा रही थी । माया घुटती आवाज़ में , लड़खड़ाते शब्दों से बोली ,
मुझे जाना होगा , देर हो रही है ।
अरूप ने उसके कान के पास अपने होठों को लाकर धीमे स्वर में कहा ,
हाँ , तुम्हें चलना होगा , तुमने बहुत देर कर दी ।
माया अरूप के कंधे पर सिर टिकाए शून्य थी , अरमानों की भारी पलकें खुल रही थीं । अरूप उसे मज़बूती से थामें खड़ा था ।