
आज़ादी , स्वतंत्रता , independence , ये शब्द बड़ा सुख देते हैं । कभी सोचा तो ज़रुर होगा कि क्यों । क्या इस शब्द में सुख है या इसके रस में सुख छिपा है ? सुख तो सदैव रस में ही होता है , शब्द तो केवल उस आनंद को बताने का एक माध्यम है । हमने यानि आदमज़ात ने आज़ादी को लेकर बड़ी-बड़ी लड़ाईयाँ लड़ीं है , इसका गवाह इतिहास है । लेकिन जब बात नारी आज़ादी की आती है तो मीडिया पर इतने जंगी तर्क-वितर्क शुरु हो जाते हैं कि वो हास्यास्पद हो जाता है ।
पहली बात तो ये कि क्या नारी को अपनी आज़ादी के लिए समाज से सैर्टिफ़िकेट या इजाज़त चाहिए ? इसकी परिभाषा कौन तय करेगा ? क्या ये लड़ाई , ये परिभाषा औरत को ख़ुद तय नही करनी चाहिए ?
मैं स्वयं एक नारी हूँ तो मेरे इस विषय पर अपने विचार हैं , किसी से भिन्न भी हो सकते हैं । यहाँ क्या सही है और क्या ग़लत , मैं ये बिल्कुल नही कहना चाहती क्योंकि सही -ग़लत तो अपना-अपना परिमाण होता है ।
गत वर्षों में कई बार ये सुनने में आया कि लड़कियों को ऐसे कपड़े पहनने चाहिए , ऐसे कपड़े नही पहनने चाहिए । कुछ सम्माननीय कहे जाने वाले पदों पर आसीन लोगों को कहते सुना कि “अगर लड़कियाँ ढंग के कपड़े पहने तो ये बलात्कार के हादसे कम हो सकते हैं ।” उनकी कमतर सोच और बुद्धि पर बड़ा अफ़सोस हुआ । उनके अनुसार किसी साड़ी पहने या बुर्का पहने या सलवार-कमीज़ पहने औरत का बलात्कार हुआ ही नही होगा । यही सोच औरत की आज़ादी को कभी समझ नही पाएगी । स्त्री को कपड़ों से आज़ादी नही चाहिए ये बात उन्हें समझाना बड़ा जटिल काम है ।
आज़ादी एक सोच है , एक विचार है , एक भाव है । जब हमें ये न सोचना पड़े कि हम क्या पहने , हम बाहर जाएँ तो कितने बजे तक वापस आना ज़रुरी होगा । यदि वो अकेले जाना चाहे , अपने साथ समय बिताना चाहे तो उसे किसी की इजाज़त न लेनी पड़े । कहने का मतलब है कि उसे अपनी सोच की आज़ादी चाहिए जो आज तक दरवाज़ों में बंद है । यह बात केवल गाँव या कस्बों की औरतों के लिए नही है , अफ़सोस की बात तो ये है कि ये बात हर तबके और हर स्तर की औरतों के लिए है । मैंने ख़ुद , अच्छे , पढ़े-लिखे कहे जाने वाले परिवारों की औरतों को देखा है कि वो कमाते हुए भी आर्थिक और मानसिक रुप से पति पर निर्भर हैं । एक डर उनके भीतर समाया रहता है कि अगर उसने अपना महत्त्व जताया तो उसे न जाने किन परिस्थितियों का सामना करना पड़ सकता है । वो जीते जी पुरुष के अहम् को पुचकारती – सहलाती रहती है , पुरुष “मैं” के मद में डूबा रहता है । उसका काम , काम होता है और औरत के काम को , उसके मन बहलाव या टाईम-पास कह कर अपने अहम् को पोसता रहता है । औलाद में गुण है तो बाप पर गई है , नालायक है तो माँ पर गई है कह कर सिर ऊँचा रखता है । घर के बेहतर या महत्त्वपूर्ण फ़ैसले केवल पुरुष ही ले सकता है , औरत में वो क्षमता नही है , इस बात का घर-भर को यकीन होता है । औरत भी इसे हँस कर स्विकृति देती रहती है , फिर चाहे भीतर कुछ भी सोचती रहती हो लेकिन उसका भीतर तो कब का दफ़्न हो चुका होता है । ये ग़ुलामी मुझे बेबस और लाचार बना देती है , भीतर से कुंठित कर देती है , ऐसे में कभी-कभी औरत पर गुस्सा भी आता है , उसके इस डर से नाराज़गी है मुझे क्योंकि ये अधिकार वो लेने का प्रयास ही नही करती ।
मैं विदेशों में रही तो अपने देश की औरत मुझे बेहद पिछड़ी और ग़ुलाम लगी । कपड़ों की बात मैं यहाँ भी नही कर रही हूँ , कपड़ों में तो हमारे शहरों की लड़कियाँ कुछ-कुछ बराबरी पर हैं । यहाँ मैं , न ही मैं कुछ गिनी-चुनी , सफ़ल औरतों की गिनती पूछ रही हूँ , हर बार उनका उदाहरण देकर हम देश की उन लाखों करोड़ों औरतों को उपेक्षित कर अपने को भ्रमित कर देते हैं । हाँलाकि , गाँव में अभी भी सिर ढक कर रसोई में काम करती बहू अच्छी बहू की श्रेणी में आती है , इस बात के सबूत के लिए आपको गाँवों में जाना पड़ेगा । गाँव भी शहर से दूर वाले नही , बल्कि राजधानी , दिल्ली के आस-पास ही मिल जाएँगे । न चाहते हुए भी हमें तुलना करनी ही पड़ेगी वरना अपनी प्रगति की गति को हम कभी आँक नही पाएँगे ।
चलिए अपनी-अपनी आज़ादी पर सोचें और अपने दबे पंखों को फड़फड़ा कर उड़ने का प्रयास करें । वो खुला आसमान , वो खुली हवा हमारे लिए भी है , उसका एहसास करें । वो एहसास एक अद्भुत एहसास होगा । हमें सिर्फ़ और सिर्फ़ अपनी जगह बनानी है क्योंकि अपने वजूद का एहसास करना बहुत ज़रुरी है ।