स्कूल की यादों की कड़ी में मुझे वो प्रकृति को अपनी सखी सहेली समझना सबसे प्यारा लगता था , शायद तभी से प्रकृति से गहरा प्रेम हो गया था । हमारे बोर्डिंग स्कूल का दायरा बहुत बड़ा था , वह कई किलोमीटर तक फैला था । उसी में हमारी सारी दुनिया थी , एक छोटा सा एयरपोर्ट , एक छोटी नदी जिसमें कभी कभी नाव चलाने जाते थे । थोड़ी दूर एक टीले पर ब्रह्म मंदिर था जो बेल के और इमली के पेड़ों से घिरा हुआ था । हम समय मिलने पर अक्सर वहाँ जाया करते थे , वहाँ जाना हम सबको बहुत अच्छा लगता था । सबसे मेरा मतलब मुझे और मेरी सहेलियों को । पेड़ से तोड़ कर इमली खाने का मज़ा ही कुछ और था । मैं अपनी सहेलियों में सबसे लंबी थी तो पेड़ पर चढ़ कर तोड़ने का काम मेरा होता । हॉस्टल से स्कूल की ओर जाते-आते आँवले के पेड़ थे , उनके टेढे-मेढ़े तनों पर बंदर की तरह चढ़ कर आँवले तोड़ना बेहद ज़रूरी होता । उसमें भी खेल मिल गया था , एक आँवला खाते और फिर पानी पीते तो पानी मीठा लगता , बस यही करते रहते । आप भी आज़मा कर देखिये , सच में बड़ा मज़ा आएगा !
हॉस्टल के आस-पास कचनार के पेड़ थे जब उनके खिलने का मौसम आता तो वो गुलाबी फूल इतने सुहाते कि बकरी की तरह तोड़ – तोड़ कर चबा जाते । लाल-लाल माणिक से झाड़ियों में लटकते बेर के गुच्छे देख कर मुह में पानी आ जाता और अपने हाथों का छिलना – कटना सब भूल कर झाड़ियों में मधुमक्खियों की तरह चिपटे रहते और अपनी जेबें भर लेते । फिर इत्मिनान से बैठ कर खाते तो उसी में जीवन का सबसे बड़ा सुख मिलता । अब सोचते हैं तो पाते हैं कि बड़े-बड़े गैजेट्स पाकर भी बच्चे खुश नही हो पाते ।
सुबह आँख खुलती तो मोरों की पीकू पीकू की आवाज़ से । वो हमारे इर्द-गिर्द ऐसे बेख़ौफ़ होकर घूमते थे जैसे हम में से एक हों । हम उनके उपहार स्वरूप छोड़े गए पंखों को अपनी जायदाद समझ कर बीनते रहते ।
बसंत पंचमी के दिन पीले ही कपड़े पहनते और हमें खाने में पीले मीठे चावल मिलते । इससे जुड़ा एक किस्सा याद आता है ,जब मैं छटी-सातवीं में रही होंगी । बसंत पंचमी पर उस बार माँ किसी कारणवश मुझे पीली फ्रॉक नही भेज पाईं । अब मुझ से अधिक मेरी सहेलियों को फिक्र थी कि मैं क्या पहनूँगी ? अगले दिन बसंत था , मैं उदास बैठी थी , मेरा उतरा मुँह देख कर मेरी सखियाँ परेशान थीं । तभी मेरी सहेलियों ने हॉस्टल में सबसे पीले ड्रॉइंग कलर इकट्ठा कर लिए और एक बाल्टी में घोल दिए । मेरी एक सफ़ेद फ्रॉक थी , बस फिर क्या था उसे उसमें डुबो दिया गया । एक घंटे बाद निकाल कर उसे सुखाया गया और प्रेस करने के लिए बिस्तर पर गद्दे के नीचे दबा दिया । सुबह जब निकाला तो पीली फ्रॉक तैयार थी , हाँ , परफ़ेक्ट नही थी लेकिन बुरी भी नही थी । मैं खुश थी कि आखिरकार मैंने पीली फ्रॉक पहनी , मेरी खुशी में मेरी सहेलियां भी खुश थीं । आखिर हमने पूरे उल्लास के साथ बसंत मना ही लिया ।
माला जोशी शर्मा
Nostalgic writing. Works like time machine. Took me into my school days.
Excellent!!!!!!
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Thank you so much for motivating me and giving time to read it .
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