स्कूल की यादों की जब कड़ी जुड़ने लगती है तो एक के बाद एक जुड़ती चली जाती है । मेरे साथ भी ऐसा ही कुछ हुआ , सोचा नही था कि एक लिखूँगी तो आगे बढ़ती ही जाऊँगी । ये यादें किसी क्रमबद्ध पूर्वनियोजित योजना से नही लिखीं , बस जहाँ जो याद आया वो लिख डाला ।
जब मैं हॉस्टल में गई उस समय मेरी उम्र कोई सात साल की रही होगी , तीसरी कक्षा में थी । सच कहूँ , तो मुझे याद नही कि मैं कभी मम्मी-पापा को याद कर के रोई थी । सुबह पाँच बजे से उठ कर नित्यक्रम में ऐसे जुट जाते कि रात को नौ बजे बेसुध होकर बिस्तर पर पछाड़ खा कर गिर जाते । अब ऐसे में घरवालों को याद करने का समय ही नही मिलता था ।
तीसरी -चौथी क्लास तक हमें बाई नहलाती थी और हमारे छोटे-बड़े सारे कपड़े धोबी से धुलते थे इसलिए हर कपड़े पर हमारा नंबर और नाम लिखा होता था । सुबह बाथरुम में हमें लाईन से खड़ा कर बाईयाँ नहलाती तो बस उस समय मम्मी याद आ जाती थीं । बाईयाँ हमें कपड़ों की तरह धो डालती थीं , साबुन रगड़ा , पानी दनादन डाला और तौलिया लपेट कर दूसरी बाई बाहर खड़ा कर देती जहाँ तख़त पर लाईन से हमारे कपड़े रखे होते थे और हमें ख़ुद अपना नाम या नंबर देख कर उठाने होते थे । कभी-कभी बाथरुम में आए साबुन और पानी के तूफ़ान से गुज़रने के बाद गफ़लत में हम किसी और के कपड़े भी उठा लेते थे । बस पूछिए मत उसके बाद जो सी बी आई और एफ़ बी आई की तरह तलाशी ली जाती थी । हर तैयार बच्चे को पकड़ कर उसका नंबर चैक किया जाता था , हमारे जैसे लल्लूराम का तो दिल धड़कने लगता था । अब अपने पीछे लिखे नंबर को ख़ुद चैक भी नही कर पाते थे और अगर कहीं पकड़े गए तो सबके सामने बाई कपड़े बदलेगी । अब ये दोबारा सबके सामने वस्त्रहीन होना तो मम्मी की याद दिला ही देता था । अफ़सोस ! फिर भी हमारे जैसे ऐसी ग़लती बार-बार कर जाते थे , लल्लूराम जो ठहरे । अगर ख़ुदा-ना-खास्ता आपके सिर में कहीं जूएँ हो गईं तो समझ लो कि आपकी ख़ैर नही । बाईयाँ आपको पकड़ कर सिर में इतने गुस्से से दवाई डालेंगी और सुबह – शाम नहलाएँगी , जब तक आप उन जीवों से छुटकारा नही पा लोगे तब तक बाईयाँ आपको छोड़ेगीं नही । हम बाईयों से छिपते ही फिरते थे , पता नही कब पकड़ कर नहलाने लग जाएँ , यही डर दिल में समाया रहता था । वो नहलाने का जो सिलसिला चला तो हमारी नस-नस में बस गया और हम कब नहाने के शौकीन हो गए पता ही नही चला ।
स्कूल के बाद लगभग चार बजे हमारा खेलने का समय होता , उस उम्र में हमें सबसे अच्छा लकड़ी के घोड़ों पर चढ़ कर पकड़म-पकड़ाई खेलना लगता था । लकड़ी के घोड़े से मेरा मतलब है दो लंबे डंडे जिन पर नीचे पैर रखने की जगह बनी होती थी और हमें उस पर खड़े होकर संतुलन बनाना होता था । ओह !! कैसे करते थे पता नही !! एक बार उन्हीं पर जबरदस्त संतुलन बना हम खेल रहे थे , मैं सबको पकड़ रही थी । भागते-भागते मैं ग्राउंड के बाहर लगी लकड़ी की फ़ैंसिंग तक पहुँच गई जो काले रंग में रंगी थीं । मुझे अपने कानों में फुफकार सुनाई दी , मैंने मुड़कर देखा तो काला कोबरा अपनी पूँछ पर खड़ा फन फैलाए फुफकार रहा था । देखते ही मेरी सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई , ज़बान तालू से चिपक गई । मैं चिल्लाना चाहूँ लेकिन आवाज़ गले में दब जाए । मुँह खुला , आँखें फटी , जैसे आँखें उस पर चिपक गई थीं किसी जादू की तरह । सहेलियाँ पकड़ो-पकड़ो की पुकार कर रही थीं , जब मैं न हिली तो वे पास आईँ और मैंने ऊँगली का इशारा साँप की ओर किया । अब सब की चीख निकली तो मेरे घोड़े एक ओर और मैं धम्म से नीचे ज़मीन पर । हंगामा हो गया , चौकीदार आ गए , हमें हटा कर कोबरा को पकड़ लिया गया । ऐसे हादसों से जूझते हुए कई बार हमें अप्रत्याशित मुसीबतों का भी सामना करना पड़ जाता था ।
हॉस्टल में कई बार आपको अपने से थोड़े बड़े बच्चों की दादागिरी का शिकार होना पड़ जाता है । ऐसे गुंडा टाईप के बच्चे सिर्फ़ लड़के ही नही होते लड़कियाँ भी होती हैं । ऐसे बच्चे लल्लू टाईप के बच्चों पर नज़र रखते हैं क्योंकि उन्हीं के दम पर उनका बड़प्पन या गुंडागिरी चल पाती है । अगर मैं ग़लत नही हूँ तो इस तरह का शोषण बड़ों में भी होता है यानि ये मानव प्रवृति ही है । ऐसी ही एक लड़की हमारी डोरमैट्री में थी जो पाँचवीं में पढ़ती थी और हम तीसरी में । हम दो लड़कियाँ दिल्ली की थीं जो उसी साल आई थीं , दूसरी थी सुनीता जिसकी अभी तक अँगूठा चूसने की आदत भी नही गई थी । वो रात को मेरे बिस्तर पर आकर एक हाथ से मेरा कान कुरेदती और दूसरे हाथ का अँगूठा उसके मुँह में होता । उसे ऐसे ही नींद आती थी लेकिन मुझे ऐसे नींद नही आती थी बल्कि मेरी नींद तो उड़ जाती थी । मैं उसे उसके बिस्तर पर धकेलती थोड़ी देर में वो फिर लुढ़क कर मेरे पास आ जाती । एक दिन हम इसी धकेला-धकेली में लगे थे कि वही गुंडा लड़की हमारे पास आकर खड़ी हो गई । हम काफ़ी डर गए , मेरा सुनीता से वायदा था कि उसकी अँगूठा चूसने वाली बात किसी को नही बताऊँगी । अब हम लल्लूराम सच्चाई और दोस्ती को बहुत सीरिसली लेते थे भला अपने दोस्त से वादाखिलाफ़ी कैसे कर सकते थे । अँधेरे में चुपचाप उसका मुँह ताकते रहे । उसने फुसफुसा कर हमारे कान में कहा ,
क्यों जाग रही हो अब तक ? वार्डन को शिकायत करुँ ? चुपचाप चलो मेरे साथ ।
हम हिपनोटाज़्ड से उसके पीछे चल दिए , वैसे भी हमारी क्या मजाल जो उसका हुक्म ना मानें । हमें कोने में ले जाकर उसने एक ओर इशारा करते हुए हमारे कान में कहा ,
देखो , उस लड़की का आज घर से पार्सल आया है और उसमें चॉकलेट्स आई हैं । जाओ उसकी अलमारी खोलो और चॉकलेट्स निकाल कर लाओ ।
उसके सामान्य ज्ञान पर हम हैरान थे , ये सुनते ही हमारी हवा खुश्क हो गई , हाथ-पैर भीतर ही भीतर काँपने लगे । चोरी !! जब हम टस से मस नही हुए तो उसकी गुस्से में फुसफुसाहट सख़्त हो गई ,
देख क्या रही हो , आगे बढ़ो , इससे पहले कि कोई जगे , काम ख़त्म कर के मेरे पास आओ ।
पता नही कुछ लोगों की कमांड में जन्मजात जागीरदारी होती है तो कुछ की फ़ितरत ही नौकरशाही वाली होती है । उस दिन लगा कि हम नौकरशाही फ़ितरत के हैं , हाँलाकि तब तक प्रेमचंद का साहित्य हमारे लिए अछूता था । ख़ैर ! हम आगे बढ़े , हमारे पास उसकी बात न मानने का विकल्प नही था । एक ने अलमारी खोली और एक ने सामने ही रखा पैकेट निकालना चाहा कि पलास्टिक हमारी चोरी की गवाही देने चरमरा उठा , हम छिटक कर पीछे हट गए । चॉकलेट की मालकिन सतर्क थी , उसने करवट बदली । अंधेरे में सामने दो साए देख कर वह चिल्ला पड़ी और लाईटें जल उठीं , हम रंगे हाथों पकड़े गए थे । गुंडा लड़की ने हमें आँखें दिखाईं और अपने बिस्तर में दुबक गई । वॉर्डन अपने कमरे से बाहर आ गईं , हमें पकड़ कर अपने कमरे में ले गईं । मेरी ओर इशारा कर के बोलीं ,
अरे , तुम तो बड़ी शरीफ़ लगती हो , तुम्हारे घर से तो वैसे ही पार्सल आते रहते हैं , फिर तुम क्यों चॉकलेट चुराने चली थीं ?
जवाब में हमारे पास केवल आँसू थे , दोनों ओर डर था , इधर भी और उधर भी । सच बताएँ तो मुश्किल , न बताएँ तो मुश्किल इसलिए बस रोना ही हमारे वश में था इसलिए जो वश में था वो कर रहे थे । वॉर्डन भी कच्ची नही थीं , शक्ल देख कर समझ जाती थीं कि माजरा क्या है । उस समय तो उन्होंने हमें सोने भेज दिया और हम रोते-रोते अपने-अपने बिस्तर पर लेट गए । उसके बाद मेरे मन के कोने में भी विद्रोह की भावना जाग उठी , मैंने सुनीता को हिदायत देदी कि अगर आज के बाद वो मेरा कान कुरेदने आएगी तो मैं सबको उसके अंगूठा चूसने वाली बात बता दूँगी । उसके बाद वो मेरे पास नही आई , उसका उसने क्या विकल्प ढूँढा मुझे नही पता । अगले दिन पिछली रात का हॉस्टल में थोड़ा हंगामा रहा और हम शर्मसार से घूमते रहे पर मुँह नही खोला , अब इतने भी विद्रोही नही हो पाए थे । उस दिन कुछ हमारी सीनियर लड़कियाँ हमारे साथ काफ़ी नर्म और हमारी हमदर्द बन कर आईं । वो भी अपने तरह की दादा थीं लेकिन सब की सहायता करने वाली , ये बात हमें पता चल गई थी । उन्होंने हम दोनों से किसी तरह उस गुंडा लड़की का नाम निकलवा लिया इस आश्वासन पर कि हमें कुछ नही होगा और वो हमारी हर तरह से रक्षा करेंगी । बस उसके बाद तो उस गुंडा लड़की को उन्होंने बहुत धमकाया और उसकी शिकायत वॉर्डन से की , वॉर्डन तो पहले से ही हमें इस लायक नही समझती थीं । कुछ दिनों बाद वो लड़की हॉस्टल से चली गई तो हमने राहत की साँस ली । अब हमारी ख़ैरख़्वाह हमारी सीनियर्स थीं , हम मस्त होकर घूमने लगे थे ।
माला जोशी शर्मा
Beautifully written . It’s like reading one of the Enid Blyton stories. Takes you back down memory lane.
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Thank you so much for taking out time and reading .
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