बहादुर शाह ज़फ़र हिंदुस्तान के आख़िरी बादशाह की ग़ज़ल ,
“लगता नहीं है दिल मेरा , उजड़े दयार में” सुन रही थी कि विचारों का सिलसिला शुरु हो गया । बादशाह को अंग्रेज़ी हुकुमत ने कैद कर बर्मा भेज दिया , ये अंग्रेज़ कुछ भी कर जाते थे ! वो उस , बूढ़े , लाचार बादशाह की बग़ावत से इतना घबरा गए कि इतने बड़े हिंदुस्तान में कहीं भी क़ैद करने की नही सोची । बेचारगी और अकेलेपन के अपने अंतिम दिनों में बादशाह कहते हैं ,
कितना है बदनसीब ज़फ़र दफ़्न के लिए
दो ग़ज़ ज़मीं भी ना मिली कू-ए-यार में
विचार कीजिए कि वो उस समय कितने दर्द और रुही कुल्फ़त से गुज़र रहे होंगे । ये दर्द शायद अंग्रेज़ी हुकूमत नही समझ पाई , समझती तो शायद उन्हें हिंदुस्तान में ही दफ़्न करने की इजाज़त दे देती लेकिन उन्हें भय किसी और बात का था । हुआ ये कि बादशाह ने बर्मा में ही आख़िरी साँस ली , उनकी रुह तड़पती रही और उन्हें वहीं दफ़्न कर दिया गया । उन्हें क्या पता था कि कभी ऐसा भी होगा या ऐसा भी ज़माना आएगा कि जहाँ दफ़्न करना या होना इतना दर्द भरा नही होगा । ऐसा मेरे ज़हन में तब आया जब मैं विदेश में रही । मेरी पहली प्रतिक्रिया तो हैरानी ही थी क्योंकि मैंने इससे पहले ऐसा कभी न सुना था और न पढ़ा था , हिंदुस्तानी जो ठहरी । एक दिन टी वी देखते हुए देखा कि अजीब विज्ञापन है , पहले तो मेरी समझ में नही आया लेकिन जब फिर से वही विज्ञापन आया तो ध्यान दिया कि फ़्यूनरल का विज्ञापन है । यहाँ दफ़्न करने के लिए विज्ञापन दिए जाते हैं जिनमें मरने को इतना ग्लैमरस बना कर दिखाते हैं कि पूछो मत । फ़्यूनरल के लिए कंपनियाँ चल रही हैं जो सुंदर कफ़न पसंद करने से लेकर आपकी पसंद के किन फूलों से आपको सजाया जाएगा तक की गारंटी लेती हैं । अब आप कहेंगे कि इसमें क्या बुराई है ? बिल्कुल कोई बुराई नही है , आप मरने के बाद क्या चाहते हैं ये आपका व्यक्तिगत मसला है । मैं केवल एक रिवाज़ की बात कर रही हूँ , संस्कारों की बात कर रही हूँ , संस्कारों की भिन्नता की बात कर रही हूँ जिसके कारण हिंदुस्तान के बादशाह ने रंजोग़म में दम तोड़ा । बेचारे बादशाह , आज के युग में पैदा हुए होते तो ! तो , वो भी किसी ऐसी कंपनी को हायर कर सकते थे और उनका जनाज़ा भी शान-ओ-शौकत से निकलता लेकिन जनाब , तब आपको शायद ये ग़ज़ल न सुनने को मिलती जो आपकी आँखें नम कर देती है ।
दरअसल , मैं थोड़ी कन्फ़्यूज़ हूँ , मुझे इन फ़्यूनरल के विज्ञापनों ने दुविधा में डाल दिया है । मेरे विचार कुछ गड्ड-मड्ड से हो रहे हैं , सच मानिए तो शुरु में मैं सकते में आ गई थी कि ये क्या विज्ञापन है ! हज़म होने में थोड़ा समय लगा और बुढ़ापे के अकेलेपन और असुरक्षा की भावना का अंदाज़ा भी हुआ और अंजाने में ही दो संस्कृतियों की तुलना भी हो गई । यानि ज़फ़र साहब को तो विदेशियों ने देश निकाला दे दिया था इसलिए उनकी रुह तड़पती रही लेकिन आप तो अपने ही देश में अपने जनाज़े के लिए अपनों के काँधे नही , अंजानों के काँधे ढूँढ रहे हैं ! दूसरी ओर एक विचार आता है कि जब मर ही गए तो कौन काँधा दे रहा है कौन नही इससे मतलब ? लेकिन हिंदुस्तानी इस बात को समझने में थोड़ा समय लगाएगा , वो कहेगा कि ज़फ़र साहब का दर्द गहरा था , उनके साथ ज़्यादती हुई । मरने के बाद उनकी आखिरी इच्छा पूरी होनी चाहिए थी और उन्हें हिंदुस्तान में दफ़्न करने की इजाज़त मिलनी चाहिए थी , लेकिन मसला राजनैतिक था , बगावत का ख़तरा था इसलिए वो कहते हैं ,
बुलबुल को बागबाँ से ना सैयाद से ग़िला ,
किस्मत में क़ैद लिखी थी फ़सल-ए-बहार में ।
यानि कि हालात तो आज भी वही हैं केवल परिस्थितियों का अंतर है । विचार करने की बात है कि क्या हमारे बुज़ुर्ग इस परिस्थिती की कगार पर खड़े हैं ! जिस दिन हिंदुस्तान में इस तरह के विज्ञापन आने लगेंगे उस दिन समझ लो कि क्या होगा । मेरे विचार से वो दिन दूर नही क्योंकि धीरे-धीरे एक संस्कृति लुप्त हो रही है । मैं कल्पना नही कर पा रही कि जिस दिन हिंदुस्तान में ऐसे विज्ञापन आने लगेंगे तो लोगों की प्रतिक्रिया क्या होगी क्योंकि हमारे लिए तो काँधा कौन देगा इस पर न जाने क्या-क्या कह दिया गया है और कहा जाता है । शायद इसीलिए बहादुर शाह ज़फ़र ने अपने आप को बदनसीब कहा होगा ।
समय बदल रहा है , सोच बदल रही है ,ये तो हमें मानना ही पड़ेगा , इस का प्रमाण मुझे हाल ही में मिला । हमारे अभिन्न मित्र हैं , उनके 96 साल के पिता जिन्हें मैं अपने गुरु समान मानती हूँ , बेहद प्रगतिशील व्यक्ति । तथाकथित उच्च ब्राहमण कुल में जन्में , उन्होंने अपना शरीर छोड़ने से पहले एक वसीयत लिखी कि जब उनकी आत्मा शरीर त्याग दे तो उनका शरीर आर्मी हॉस्पिटल वालों को दान कर दिया जाए जहाँ उनका शरीर शोध कार्य के काम आ सके । उन्होंने पहले ही आँखों के अस्पताल में अपनी आँखों को दान के लिए लिख दिया था । जिस दिन उन्होंने अपने प्राण त्यागे तो उनके पुत्र ने उनकी इच्छानुसार उनका शरीर दान कर दिया । उन्होंने तो उपरोक्त सारे विवाद ही समाप्त कर डाले ! उन्होंने , काँधा देना , दफ़्न करना , मुखाग्नि देना जैसी औपचारिकताओं को समाप्त कर आत्मा और परमात्मा की बात सोची और इस शरीर को नश्वर ही माना , मिट्टी ही माना । ये बात हम कहते-सुनते तो हैं लेकिन मानते नही । कबीर को पढ़ते हैं लेकिन समझते नही , कबीर कह गए ,
माटी कहे कुम्हार से , तू क्या रौंदे मोए ,
एक दिन ऐसा आएगा , मैं रौंदूँगी तोए ।
शरीर की नश्वरता पर उन्होंने अनगिनत बातें , अलग-अलग तरह से उदाहरण दे कर कहीं ,
उड़ जाएगा , हंस अकेला , जग दरशन का मेला……
जिस दिन हम इस सोच को अपना लेंगे तो अपने को दफ़्न के लिए बदनसीब नही कहेंगे ।
चलिए सोच बदलते हैं ।
माला जोशी शर्मा