
बूंद-बूंद यूँ ज़िंदगी भरती जा रही है ,
हर दिन वो बदलती जा रही है ,
बच्चे थे तो बड़े होने के सपने देखा करते थे ,
माँ-बाप भी हमारे सपनों का घट बूंद-बूंद भरा करते थे ,
कब माँ-बाप बिछड़ गए और ज़िंदगी यूँ ही बूंद-बूंद भरती रही ,
हम परिवार वाले हो गए और हमारे बच्चे भी शामिल हो गए ,
वही किस्सा हम भी दोहराते रहे , अपने साथ उनके सपनों का घड़ा भी भरते रहे ,
फिर बच्चे छूटते रहे और हम अपना घड़ा बूंद-बूंद यूँ ही भरते रहे ,
ज़िंदगी बूंद-बूंद यूँ ही भरती जा रही है , हर दिन वो बदलती जा रही है ।
समझ नही आ रहा कहाँ जा रही है ?
पहले मैं मन की करती थी , मन से चलती थी
अब मैं मन की कब करती हूँ ? मन से कम चलती हूँ ।
मन की कम सुनती हूँ और इग्नोर करती हूँ ,
चलती हूँ तो दवाईयाँ साथ रखती हूँ ।
बस बूंद-बूंद यूँ ज़िंदगी भरती जा रही है ,
कब छलक जाएगी पता नही लेकिन मैं फिर भी उसे बूंद-बूंद भरती जा हूँ ,
हर दिन वो बदलती जा रही है ।
माला जोशी शर्मा
👌👌👌अति उत्तम मैम
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Thank you Garima .
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स्वागत मैम 😊🙏
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कब छलक जाएगी पता नही ..acchi kavita hai 😀 🙂
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Thanks dear .
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अद्भुत 👍
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आभार ।
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🙏
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