जय माता की , जय माता की , जयकार मची थी
माँ की भक्ति में डूबे सब , रोली कुमकुम उड़ा रहे थे
गली-गली में नेता , संस्कृति का डंका बजा रहे थे
वहीं किसी नुक्कड़ पर एक बेटी माँ को पुकार रही थी
संस्कृति भक्त बने कुछ उसकी चुन्नी उड़ा रहे थे ।
उसके नाज़ुक , कोमल तन को गिद्द बने वो नोच रहे थे ,
इस पर भी उन्हें चैन न आया ,
कोमल तन को मोम बनाया ,
आग्नि से उपजी द्रौपदी को , आग्नि को ही सौंप रहे थे !
माँ की भक्ति में डूबे सब , रोली कुमकुम उड़ा रहे थे
माता क्रुद्ध आँखों से , झूठे भक्तों की झूठी भक्ति देख रही थी
अपनी बेटी की तड़पन पर सागर को भी जला रही थी ,
सोच रही थी , कैसे भक्त हुए ये मेरे !
दीप जला कर मुझे जलाते !
पत्थर को चुन्नी हैं चढ़ाते , अक्स को मेरे वस्त्रहीन हैं करते !
गौ को माता कहते जाते , कन्या को ये नोच जलाते !
इंसानों का खून बहाते , मिट्टी की मूरत को रोज़ सजाते !
एक बार मैं यज्ञ में कूदी , ये अब तक मुझे जला रहे हैं !
कहाँ गया वो शिव का तांडव ?
अपमान मेरा जो सह न पाया , आज नही वो लौट के आया ,
झूठे जग की झूठी भक्ति देख के उसने जग बिसराया ।
माला जोशी शर्मा
कविता का भाव स्पष्ट है ….समाज में व्याप्त विसंगतियों पर गहरा प्रहार करती हुई रचना …
समय के साथ साथ हम सब समाजिक स्तर पर और भी कमजोर होते जा रहे हैं …
GDP sensex , percentage marks me उलझे हुए हैं पीछे से समाज खोखला हैं.. 🌻
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बिल्कुल सही कहा निमिश , हम सामाजिक तौर पर कमज़ोर और खोखले होते जा रहे हैं । आपका आभार ।
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🙏
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अति उत्तम कविता मैम आपकी कविता न केवल सामजिक बल्कि मानसिक विसंगतियों पर भी चोट करती है|आज मनुष्य मानसिक रूप से इतना कमजोर हो गया है की संवेदना तो हैं ही नहीं उसके साथ उसके नैतिक मूल्य भी खत्म होते जा रहे हैं |
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आपका आभार व्यक्त करती हूँ कि आपने अपना समय दिया और पढ़ा । आए दिन कोमल , भोली बच्चियों के साथ हुए हादसे से दिल हिल जाता है ऐसी अमानुषी घटना सुनते हैं तो समाज के विघटन पर चिंता होती है ।
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