औरत का जीवन इतना आसान नही होता जितना वो दिखता है । मेरी एक सहेली ने जब मुझसे ये कहा कि मैं माँ के बारे में कुछ लिखूँ तो मैं सोच में पड़ गई , मन की गहराइयों में अचानक अनगिनत ऐसी औरतों की शक्लें उभर आईं जिनका जीवन अदभुत रहा है । जिन्होंने जीवन में कभी हार नही मानी , ठोकर लगी , गिरीं , कपड़े तार – तार हो गए , ज़माना उँगलियाँ उठाता रहा और वो हर बार सिर उठा कर खड़ी होती रहीं । ऐसे में साहिर साहब का ये शेर याद आता है…..
हज़ार बर्क गिरें , लाख आँधियाँ उट्ठें
वो फूल खिल के रहेंगे , जो खिलने वाले हैं ।
ये औरत की ज़िंदगी पर बड़ा सटीक बैठता है । ऐसा ही कुछ माँ का भी जीवन रहा है । लेकिन उस औरत की कहानी लोगों के सामने लाने में झिझक हो रही थी जब की वो जीवित हैं । पता नही लोग क्या सोचेंगे…..!! बात मेरे जीवन की नही किसी और के जीवन की है….. !! सोचा उनसे पूछ कर लिखूँ….वैसे मुझे उनकी प्रतिक्रिया पता है…..उन्होंने कुछ भी करने से पहले कभी ये नही सोचा कि लोग क्या कहेंगे । आज वो तेरासी वर्ष की हो गईं…..!! कहाँ से शुरू करूँ समझ नही आ रहा । संघर्ष और केवल संघर्ष ही जिसका जीवन रहा हो उसके लिए कुछ शब्द लिखना बहुत कठिन है । कभी संभव होगा तो ज़रूर लिखूँगी । हाँ , इतना ज़रूर कहूँगी कि ऐसा जीवन जीने वाले लोगों को हमारा समाज केवल मरने के बाद ही सराहता है । उनके जीते जी उनकी बेबाकी और ख़ुद्दारी उनसे बरदाश्त नही होती ।
वो औरत जिसने अपने वजूद से लड़ते , कलाकार पति की कला को कभी मरने नही दिया । उसके लिए ज़माने भर की ज़िल्लतें सहीं , मज़दूरी कर परिवार को पाला लेकिन कभी साथ नही छोड़ा । जब मैं मज़दूरी शब्द का प्रयोग कर रही हूँ तो वो मज़दूरी ही है । जिस उम्र में औरतें साज – सिंगार करती हैं तब उसने दो अदद सूती धोतियों में जीवन बिता दिया , बिना किसी शिकवे – शिकायत के । सम्पन्न परिवार की होते हुए भी कभी किसी के आगे हाथ नही फैलाया और उनकी सहायता को नकार दिया । समाज ने तरह – तरह के लांछन लगाए…..अपनों ने ही उसकी अस्मिता पर सवाल उठाए , क्योंकि औरत की बेबाकी और ख़ुद्दारी को तो दुनिया बेशर्मी का नाम देते हिचकती नही । समाज को तो वही लजाती , घूँघट में शर्माती , पति की हाँ में हाँ मिलाती , रसोई घर में परिवार के लिए उनकी पसंद का खाना पकाती स्त्री ही संपूर्ण स्त्री नज़र आती है !! यदि आप इस श्रेणी में नही आतीं तो आप बेशर्म हैं , आपका चाल – चलन ठीक नही , लेकिन उसने इन बातों की कभी परवाह नही की । अपने बच्चों के लिए कुछ भी कर गुज़रने से घबराई नहीं फिर चाहे उससे उन्हें सराहना मिली या अपमान । संकुचित सोच वाले उन्हें कभी नही समझ पाए और ना समझ पाएँगे । रायसाहब की बेटी कठिन से कठिन समय में भी एक ही बात दोहराती थी…….
गुरू वशिष्ट से ज्ञानी ध्यानी , सोच के लगन धरी ,
सीता हरण , मरण दशरथ का , वन में विपत्ति पड़ी ।
हमेशा से हरिवंशराय बच्चन जी , निराला जी की कविताएँ , अमृतलाल नागर और आचार्य चतुर्सेन के उपन्यास पढ़ने की चाट है उनको । भाग्य को नही कर्म को ही सब कुछ माना और जीवनभर कर्म ही किया और आज भी करती हैं ।कभी अपनी किस्मत को कोस कर ईश्वर से शिकायत नही की । इस उम्र की और औरतों की तरह घंटियाँ बजा कर आरतियाँ नही गातीं । बस एक ही बात दोहरा देती हैं…..
होई है सोई जो राम रची राखा ।
मैं उन जैसी कभी नही बन पाई और ना बन पाउँगी क्योंकि मुझमें उन जैसा साहस नही है । उनके जीवन के पन्ने पलटूँ तो कितनी अनकही कहानियाँ दबी हैं जिनमें कहीं एक औरत का साहस है तो कहीं रूसवाई । किसी की भी सहायता करने से पहले एक पल नही सोचतीं कि इससे उन्हें क्या मिलेगा…बस कर देती हैं फिर चाहे मुसीबत में ही क्यों न फँस जाएँ । ऐसा एक बार नही कई बार हुआ है । उन्होंने अपना जीवन अपनी शर्तों पर जीया है ।
औरत तो वही है फिर चाहे वो माँ के रूप में हो या बहन , पत्नी और बेटी के रूप में । उनकी कहानी सिर्फ़ उनकी नही है , ये हर औरत की कहानी है । उसे अपनी अस्मिता के लिए पहले भी लड़ना पड़ता था और आज भी । अफ़सोस तो ये है कि हम यही सोच कर बड़े होते रहे कि एक दिन समय बदलेगा ज़रूर लेकिन ये सोच बदलने की लड़ाई अभी भी बहुत बाकी है ।