बड़े जतन से इस तन को संवारा था ,
कितने लेप और तेल से इसको सजाया था ,
दर्पण में देख देख अपने पर शरमाया था ,
कितनों को मैंने अपने रूप से रिझाया था ,
बहती दरया के किनारों को भी ठुकराया था ,
कैसा रूप की माया का जाल मैंने बिछाया था ,
बसंत ही बसंत था जीवन में , पतझड़ को मैंने भुलाया था ।
लंबी है डगर ,मंज़िल है अभी दूर यही मैंने दिल को समझाया था ।
चलते चलते कब आईना बदल गया समझ नही पाया था ।
धूप ने कब तन को झुलसाया समझ नही आया था ,
नदी के किनारों ने न जाने कब अपने साथ बहाया था ,
बसंत बीता ,पत्तों को झरते देख तब पतझर पर रोना आया था ,
मोह टूटा तो माया से धोखा मैंने खाया था ,
जिस तन को जतन से संजोया था ,
मिट्टी ही मिट्टी में उसको पाया था ,
मन कोने में खड़ा मेरी नादानी पे कितना मुस्काया था ।